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न त्वा॑ रासीया॒भिश॑स्तये वसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ सन्त्य । न मे॑ स्तो॒ताम॑ती॒वा न दुर्हि॑त॒: स्याद॑ग्ने॒ न पा॒पया॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na tvā rāsīyābhiśastaye vaso na pāpatvāya santya | na me stotāmatīvā na durhitaḥ syād agne na pāpayā ||

पद पाठ

न । त्वा॒ । रा॒सी॒य॒ । अ॒भिऽश॑स्तये । व॒सो॒ इति॑ । न । पा॒प॒ऽत्वाय॑ । स॒न्त्य॒ । न । मे॒ । स्तो॒ता । अ॒म॒ति॒ऽवा । न । दुःऽहि॑तः । स्यात् । अ॒ग्ने॒ । न । पा॒पया॑ ॥ ८.१९.२६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:26 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:26


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (वसो) हे वासदाता परम उदार महादेव ! मैं (अभिशस्तये) मिथ्यापवाद और हिंसा के लिये (त्वा) तेरी (न+रासीय) स्तुति न करूँ। तथा (सन्त्य) हे परमपूज्य ! (पापत्वाय) पाप के लिये (न) तेरी स्तुति मैं न करूँ। (मे) मेरा (स्तोता) स्तुतिपाठक पुत्रादि (अमतीवा) दुष्ट बुद्धिवाला न हो (दुर्हितः+न) और न किसी का शत्रु हो (अग्ने) हे सर्वगत ईश ! और वह (पापया) पाप से युक्त (न+स्यात्) न होवे ॥२६॥
भावार्थभाषाः - मारण, मोहन, उच्चाटन, हिंसा आदि कुत्सित कर्म के लिये हम उपासक ईश्वर की उपासना न करें तथा हम कदापि किसी के शत्रु पिशुन और कलङ्कदाता न बनें ॥२६॥
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आर्यमुनि

अब पापकर्म में परमात्मा को साक्षी बनाने का निषेध कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वसो) हे व्यापक ! (अभिशस्तये) मृषा अपवाद के लिये (त्वा, न रासीय) हम आपका नाम मत लें (सन्त्य) हे संभजनयोग्य (न, पापत्वाय) न पाप आचरण करने के लिये आपका आह्वान करें (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मे, स्तोता) आपकी स्तुति करनेवाला मेरा सम्बन्धी (अमतिवा) अल्पबुद्धिवाला (न) न हो (न, दुर्हितः, स्यात्) और न द्वेषी हो तथा (न, पापया) न पापबुद्धिवाला ही हो ॥२६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि वह असत्य कर्म में तथा अन्य पापकर्म में ईश्वर को साक्षी वा सहायक न बनाये, क्योंकि एक तो पापकर्म ही पाप है और दूसरा ईश्वर को साक्षी बनाना भी पाप होकर दूना पाप हो जाता है, जिससे उसका फलरूप दूना कष्ट भोगना पड़ता है, और जहाँ तक हो सके अपने सब मित्रों को परमात्मज्ञान में प्रवृत्त तथा दुष्ट बुद्धि से निवृत्त करके सबका हितकारक बताना चाहिये, किसी को द्वेषी न बनावे और न किसी को पापकर्मों में प्रवृत्त करे, ऐसा करनेवाला पुरुष महान् दुःखों को भोगता है ॥२६॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे वसो=वासदातः ! अहमुपासकः। अभिशस्तये=मिथ्यापवादाय हिंसायै च। त्वा=त्वाम्। न रासीय=न स्तुवीय। रासृ शब्दे। हे सन्त्य=संभजनीय परमपूज्य ! पापत्वाय=पापाय। न त्वा रासीय। हे अग्ने ! मे=मम। स्तोता=स्तुतिकर्त्ता पुत्रादिः। अमतीवा=अमतिरशोभनाबुद्धिस्तद्वान् न भवतु। न च। कस्यापि दुर्हितः=शत्रुर्भवतु। न च पापया=पापेन च युक्तो भवतु ॥२६॥
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आर्यमुनि

अथ पापकर्मणि ईश्वरस्य साहाय्यं निषिध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वसो) हे व्यापक ! (अभिशस्तये) मृषापवादाय (त्वा, न रासीय) त्वां न शब्दयेयम् (सन्त्य) हे संभजनीय (न, पापत्वाय) न पापाचरणाय रासीय (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मे, स्तोता) मत्सम्बन्धित्वत्स्तुतिकर्ता (अमतिवा) अल्पबुद्धिमान् (न) न स्यात् (न, दुर्हितः, स्यात्) अमित्रोऽपि न स्यात् (न, पापया) न पापया बुद्ध्या समेतः स्यात् ॥२६॥